मेरा जिस्म मेरी मर्जी इस सोच का इस्लामी जवाब
अल्हम्दुलिल्लाह लिल्लाहि रब्बिल आलमीन वल आकिबतु लिल मुत्तक़ीन वस्सलातु वस्सलामु अला सय्यदिल मुरसलीन।दोस्तों! मोज़ूअ बहुत नाज़ुक है, लेकिन आज के दौर में बहुत ज़रूरी भी है। कुछ बातें ऐसी होती हैं जो सुनने में हक लगती हैं, लेकिन उनका मतलब और मंशा उस हक्क से बहुत दूर होती है।
आज की दुनिया में, खासकर कुछ मोडर्न औरतें, एक नारा बुलंद करती हैं- "मेरा जिस्म मेरी मर्जी"
बात इतनी सी है, मगर असर बहुत गहरा है।
इस नारे को लेकर कुछ लोग कहते हैं कि ये औरत की आज़ादी की आवाज़ है, उसके हक़ का एलान है।
मगर सवाल ये है कि क्या इस्लाम इस सोच से इत्तिफाक रखता है?
आईए, इस सोच का जवाब देते हैं कुरान हदीस की रौशनी में अदब से, हिकमत से, और हक़ से।
"मेरा जिस्म मेरी मर्जी" क्या वाक़ई ऐसा है?
सबसे पहले सोचिए, हमारा जिस्म हमारी जान किसने बनाया, अल्लाह ने। यह आँखें, कान, नाक, दिल, ज़बान, जान, किसने बनाया अल्लाह ने। तो फिर जिस चीज़ के मालिक हम खुद नहीं उस पर मर्ज़ी कैसे हमारी चलेगी?
कुरआन कहता है
"लिल्लाही माफिस्समावाति वमा फिल अर्द"
(सूरह अल-बक़रह: 284)
जो कुछ आसमानों और ज़मीन में है, सब अल्लाह का है।
हमारा जिस्म भी अल्लाह का है। उसने हमें अमानत के तौर पर दिया है और अमानत का उसूल ये है कि जो चीज़ आपकी नहीं, आप उसे मालिक बनकर नहीं चलाते, बल्कि उस मालिक के हुक्म से चलाते हैं।
औरत की इज़्ज़त और इस्लाम
इस्लाम ने औरत को वो मुकाम दिया है जो किसी और ने दिया है।माँ बनकर उसके क़दमों तले जन्नत रख दी गई।
बीवी बनकर उसके हक़ को शौहर पर वाजिब किया गया।
बेटी बनकर उसे रहमत कहा गया।
मगर आज कुछ औरतें आज़ादी के नाम पर ऐसा रास्ता अपनाने लगी हैं जो उन्हें इज़्ज़त से दूर और बाज़ार की शो-पीस बना देता है।
रसूलुल्लाह का फरमान
रसूलुल्लाह ने फ़रमाया:"दुनिया मताअ है, और दुनिया की बेहतरीन मताअ नेक औरत है। (सहीह मुस्लिम)
तो जो औरत अपनी हया, शर्मगाही, तहज़ीब और दीनदारी के साथ जिये वो सबसे बड़ी नेमत है।
लेकिन "मेरा जिस्म मेरी मर्जी" कहकर अगर कोई ये कहे कि "मैं जैसे चाहूँ लिबास पहनूं, जहाँ चाहूँ जाऊं, जो चाहूँ करूं तो वो असल में आज़ादी नहीं, नफ्स की गुलामी है।
दुनियावी मिसाल
सोचिए, अगर किसी स्कूल की बच्ची कहे, "मेरी किताब मेरी मर्ज़ी, में जो चाहूँ उसमें लिखूं, फाड़ें, जलाऊं..." तो क्या हम ये कहेंगे कि ये उसकी आज़ादी है? नहीं!क्यों? क्योंकि वो किताब पढ़ाई के लिए दी गई थी- न कि मज़ाक़ के लिए।
ठीक इसी तरह, अल्लाह ने ये जिस्म हमें इबादत और इखलास के लिए दिया है- न कि बेहयाई और नाफरमानी के लिए।
हया - औरत का ज़ेवर
रसूलुल्लाह ने फ़रमायाः"ईमान की सत्तर से ज्यादा शाखें हैं, और हया 'शर्म' भी एक शाख है।
(सही बुखारी व सही मुस्लिम)
"मेरा जिस्म मेरी मर्ज़ी" कहने वाली सोच हया को खत्म करने की शुरुआत है।
जब हया जाती है - तो औरत शोहरत के नाम पर बिकती है, जिस्म को आज़ादी कहकर बाज़ार में सजाया जाता है। जबकि इस्लाम औरत को पर्दे में रखकर उसे हीरे की तरह महफूज़ करता है।
"मर्ज़ी" अल्लाह की या हमारी?
अल्लाह की जो मर्ज़ी है वही हमारी मर्ज़ी होनी चाहिए- यही इस्लाम है।"इन्ना लिल्लाहि वा इन्ना इलेहि राजिऊन" हम अल्लाह के लिए हैं और उसी की तरफ लौटने वाले हैं।
जो ये नारा लगाता है कि "मेरा जिस्म मेरी मर्ज़ी", वो अल्लाह की मर्ज़ी के खिलाफ करता है।
हक़ीक़ी आज़ादी क्या है?
हक़ीक़ी आज़ादी वो नहीं जो नफ्स मांगे, हक़ीक़ी आज़ादी वो है जो रूह को सुकून दे, जो अल्लाह के करीब ले जाए, जो आख़िरत को संवार दे।जो औरत अपने जिस्म की हिफाज़त करे, पर्दा करे, नफ्स से लड़े वही असल में "आज़ाद" है।
हमारी बहनों से पैगाम
बहनों। आप गुलामी की ओर नहीं, इज़्ज़त की तरफ़ आइए। शर्म-ओ-हया, तहज़ीब और दीनदारी को अपनाइए।दुनिया आपको आज़ादी के नाम पर जिस्म दिखाने का पैग़ाम दे रही है, मगर इस्लाम आपको इंसानियत और इज्ज़त की ऊँचाई दे रहा है।
कभी सोचिए - वो औरत जो पर्दे में होती है, उसकी इज़्ज़त ज़्यादा होती है या उस औरत की, जिसे हर नज़र ग़लत निगाह से देखे ?
अख़ीर में यही दुआ है
दुआ है कि अल्लाह तआला हमें ओर हमारी बहनों को वो समझ और सलीका अता फरमाए कि हम अपने जिस्म की हिफाज़त कर सकें, हया ओर ईमान के साथ ज़िंदगी बसर कर सकें, और दीन के उन अह्कामों को जानें और समझें जो हमारी रहनुमाई और हिफाज़त के लिए हैं, न कि हमें कैद करने के लिए।आमीन या रब्बल आलमीन।