लोग सोचते हैं इस्लाम में बड़ी पाबंदियां हैं
अल्हम्दुलिल्लाह। हम अपने रब का शुक्र अदा करते हैं जिसने हमें इस्लाम जैसा मुकम्मल, आसान और इंसानियत से भरा दीन अता फरमाया। और दरूद व सलाम हो हमारे नबी, रहमते आलम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पर, जिनकी पूरी ज़िन्दगी हमारे लिए एक नमूना ए अमल है।
दोस्तों !
आज के इस दौर में एक आम शुब्हा, एक आम गिला बहुत सुनने को मिलता है- "इस्लाम में तो बड़ी पाबंदियां हैं। ये मत करो, वो मत करो। हर बात में मना है, हर चीज़ पर रोक है।
कुछ लोग तो यहाँ तक कह देते हैं कि "इरलाम में ज़िन्दगी को खुल कर जीने नहीं दिया जाता।
तो आइए, इस सोच का जवाब तहज़ीब के साथ, दलील के साथ, और हक़ के साथ देते हैं।
क्योंकि इस्लाम पाबंद नहीं करता बल्कि महफूज़ करता है।
और यही बात में आपसे दिल से बाँटना चाहता हूँ।
कुछ लोग तो यहाँ तक कह देते हैं कि "इरलाम में ज़िन्दगी को खुल कर जीने नहीं दिया जाता।
तो आइए, इस सोच का जवाब तहज़ीब के साथ, दलील के साथ, और हक़ के साथ देते हैं।
क्योंकि इस्लाम पाबंद नहीं करता बल्कि महफूज़ करता है।
और यही बात में आपसे दिल से बाँटना चाहता हूँ।
इस्लाम की पाबंदियां नहीं, रहनुमाई हैं
इस्लाम की जो "पाबंदिया कहलाती हैं, वो असल में हिफाज़त की दीवारें हैं।
बिलकुल ऐसे जैसे कोई बाग़ होता है, उसमें फूल भी होते हैं और कांटे भी। अब अगर उस बाग के चारों तरफ़ बाड़ लगा दी जाए, तो कोई बच्चा या बेखबर शख्स अंदर आकर चोट न खा जाए, तो क्या आप कहेंगे ये बाड़ पाबंदी है? नहीं। ये तो हिफाज़त है।
ठीक ऐसे ही इस्लाम हमें उन रास्तों से बचाता है जो हमें नुकसान पहुंचा सकते हैं- दुनिया में भी और आखिरत में भी।
बिलकुल ऐसे जैसे कोई बाग़ होता है, उसमें फूल भी होते हैं और कांटे भी। अब अगर उस बाग के चारों तरफ़ बाड़ लगा दी जाए, तो कोई बच्चा या बेखबर शख्स अंदर आकर चोट न खा जाए, तो क्या आप कहेंगे ये बाड़ पाबंदी है? नहीं। ये तो हिफाज़त है।
ठीक ऐसे ही इस्लाम हमें उन रास्तों से बचाता है जो हमें नुकसान पहुंचा सकते हैं- दुनिया में भी और आखिरत में भी।
कुरआन क्या कहता है?
कुरआन करीम फरमाता है:
"यूरीदुल्लाहु बिकुमुल युस्र, वला यूरीदु बिकुमुल उस्र.
(सूरह अल-बक़रा: 185)
"अल्लाह तुम पर आसानी चाहता है, और तुम पर दुशवारी नहीं चाहता।
तो फिर जो लोग कहते हैं कि इस्लाम मुश्किलों का मज़हब है, क्या वो अल्लाह के इस कलाम से इनकार कर रहे हैं?
असल बात ये है कि पाबंदी का मतलब वो समझते हैं जो उनके नफ्स को अच्छा ना लगे।
अगर इस्लाम कहता है शराब मत पियो तो ये पाबंदी नहीं, सेहत की हिफाज़त है।
अगर कहता है ज़िना से बचो तो ये पाबंदी नहीं, समाज और इज़्ज़त की हिफाज़त है।
इस्लाम ये नहीं कहता कि दुनिया छोड़ दो।
इस्लाम कहता है- दुनिया को इस तरह जियो कि आखिरत भी सँवर जाए।
"यूरीदुल्लाहु बिकुमुल युस्र, वला यूरीदु बिकुमुल उस्र.
(सूरह अल-बक़रा: 185)
"अल्लाह तुम पर आसानी चाहता है, और तुम पर दुशवारी नहीं चाहता।
तो फिर जो लोग कहते हैं कि इस्लाम मुश्किलों का मज़हब है, क्या वो अल्लाह के इस कलाम से इनकार कर रहे हैं?
असल बात ये है कि पाबंदी का मतलब वो समझते हैं जो उनके नफ्स को अच्छा ना लगे।
अगर इस्लाम कहता है शराब मत पियो तो ये पाबंदी नहीं, सेहत की हिफाज़त है।
अगर कहता है ज़िना से बचो तो ये पाबंदी नहीं, समाज और इज़्ज़त की हिफाज़त है।
इस्लाम ये नहीं कहता कि दुनिया छोड़ दो।
इस्लाम कहता है- दुनिया को इस तरह जियो कि आखिरत भी सँवर जाए।
दुनियावी मिसाल
आज एक स्कूल में जाओ वहाँ ड्रेस कोड है, समय तय है, हाज़िरी ज़रूरी है।
क्या हम कहते हैं कि ये स्कूल हमें पाबंद कर रहा है? नहीं!
हम जानते हैं कि ये सब हमारी तरबियत के लिए है।
एक गाड़ी चलाने वाला ट्रैफिक सिग्नल की पाबंदी मानता है, तो अपनी और दूसरों की जान बचाता है। अगर वो कहे कि "मैं आज़ाद हूँ, मुझे कोई नियम नहीं चाहिए, तो अंजाम क्या होगा?
तो क्या पाबंदी बुरी चीज़ है? नहीं! पाबंदी तब बुरी लगती है जब इंसान नफ्स का गुलाम बन जाए।
क्या हम कहते हैं कि ये स्कूल हमें पाबंद कर रहा है? नहीं!
हम जानते हैं कि ये सब हमारी तरबियत के लिए है।
एक गाड़ी चलाने वाला ट्रैफिक सिग्नल की पाबंदी मानता है, तो अपनी और दूसरों की जान बचाता है। अगर वो कहे कि "मैं आज़ाद हूँ, मुझे कोई नियम नहीं चाहिए, तो अंजाम क्या होगा?
तो क्या पाबंदी बुरी चीज़ है? नहीं! पाबंदी तब बुरी लगती है जब इंसान नफ्स का गुलाम बन जाए।
इस्लाम की "पाबंदियाँ नेमत हैं
नमाज़ की पाबंदी हमें वक़्त का पाबंद बनाती है, अल्लाह से जोड़ती है।
रोज़े की पाबंदी हमें भूखों का एहसास दिलाती है, सब्र सिखाती है।
हिजाब की पाबंदी औरत की इज़्ज़त को महफूज़ करती है।
सूद से बचने की पाबंदी इंसान को आर्थिक गुलामी से बचाती है।
तो सोचिए - क्या ये सब पाबंदियाँ हैं या रहमतें हैं?
रोज़े की पाबंदी हमें भूखों का एहसास दिलाती है, सब्र सिखाती है।
हिजाब की पाबंदी औरत की इज़्ज़त को महफूज़ करती है।
सूद से बचने की पाबंदी इंसान को आर्थिक गुलामी से बचाती है।
तो सोचिए - क्या ये सब पाबंदियाँ हैं या रहमतें हैं?
हज़रत उमर रदी अल्लाहु अन्हु की सोच
हज़रत उमर फारूक रज़ियल्लाहु अन्हु फरमाते हैं:
"हम वो कौम हैं जिसे इस्लाम ने आज़ाद किया, अगर हम अल्लाह के फरमान और हुक्म से हटेंगे तो फिर ज़िल्लत में गिर जाएंगे।
तो आज अगर लोग इस्लाम की पाबंदियों को बोझ समझते हैं, तो ये उनके दिल की बीमारी है, इस्लाम की कमी नहीं।
"हम वो कौम हैं जिसे इस्लाम ने आज़ाद किया, अगर हम अल्लाह के फरमान और हुक्म से हटेंगे तो फिर ज़िल्लत में गिर जाएंगे।
तो आज अगर लोग इस्लाम की पाबंदियों को बोझ समझते हैं, तो ये उनके दिल की बीमारी है, इस्लाम की कमी नहीं।
इस्लाम हर इंसान की फितरत के मुताबिक्र
कुरआन कहता है:
"फित्रतल्लाहिल्लती फतरन्नासा अलैहा..
(सूरह रूमः 30)
"अल्लाह की पैदा की हुई फितरत है जिस पर उसने लोगों को पैदा किया.
यानी इस्लाम हमारी असल ज़रूरत के मुताबिक़ है। इंसान का जिस्म जैसे खाने-पीने का मोहताज है, वैसे ही रूह इस्लाम के हिदायत की मोहताज है।
"फित्रतल्लाहिल्लती फतरन्नासा अलैहा..
(सूरह रूमः 30)
"अल्लाह की पैदा की हुई फितरत है जिस पर उसने लोगों को पैदा किया.
यानी इस्लाम हमारी असल ज़रूरत के मुताबिक़ है। इंसान का जिस्म जैसे खाने-पीने का मोहताज है, वैसे ही रूह इस्लाम के हिदायत की मोहताज है।
आज का शैतानी इल्ज़ाम
आज का शैतान इंसानी शक्लों में हमें यही कहता है कि "मज़हब रोकता है, मज़हब तंग करता है। जबकि हकीकत ये है कि मज़हब हमें बेहतर इंसान बनाता है, ज़िम्मेदार बनाता है, और एक मक़सद देता है।
अगर पाबंदियां न होती, तो ये दुनिया जंगल बन जाती।
अगर पाबंदियां न होती, तो ये दुनिया जंगल बन जाती।
आखरी की बात
इस्लाम में अगर कुछ रोक है, तो उसकी वजह हिकमत है, रहमत है, और हमारी भलाई है।
जैसे माँ अपने बच्चे को आग से रोकती है तो क्या वो उसकी दुश्मन होती है? नहीं। वो चाहती है कि उसका बच्चा महफूज़ रहे।
ठीक इसी तरह, इस्लाम हमें उन आगों से रोकता है जो हमारे लिए दुनिया ओर आखिरत दोनों में नुकसानदेह हैं।
जैसे माँ अपने बच्चे को आग से रोकती है तो क्या वो उसकी दुश्मन होती है? नहीं। वो चाहती है कि उसका बच्चा महफूज़ रहे।
ठीक इसी तरह, इस्लाम हमें उन आगों से रोकता है जो हमारे लिए दुनिया ओर आखिरत दोनों में नुकसानदेह हैं।
दुआ
दुआ है कि अल्लाह तआला हमें इस्लाम की हर हिदायत को दिल से कुबूल करने की तौफ़ीक़ अता फरमाए, और हमें ऐसे लोगों में से बनाए जो इस्लाम को बोझ नहीं, रहमत समझते हैं।
आमीन या रब्बल आलमीन।